न्यूयॉर्क, संयुक्त राज्य अमरीका - अक्तूबर २०, २०१३ - आज प्रातः के शीतल शांत वातावरण में जैसे ही सूर्य आकाश को आभामय करना प्रारंभ कर रहा था, परम पावन दलाई लामा बीकन थियेटर के मंच पर एक मंडल के समक्ष बैठ कर उनके द्वारा दिए जाने वाले अभिषेक के प्रारंभिक अनुष्ठन की तैयारी कर रहे थे। बाद में जब थियेटर की ३००० सीटों में से अधिकांश भर गई तो वे प्रवचन देने हेतु लौटे।
इस अवसर पर हृदय सूत्र का अंग्रेज़ी में पाठ हुआ, जब सभी दर्शकों ने मंच से पाठ करते हुए रिचर्ड गेर का अनुपालन किया। परम पावन ने बुद्ध का उद्धरण देते हुए कहाः
“मेरी ओर से मैं आप को मार्ग दिखा सकता हूँ, पर आप को उस पर चलना पड़ेगा,” और निम्नलिखित पद उद्धृत कियाः
“ बुद्ध पाप को पानी से नहीं धोते, और न ही वे सत्वों के दुख को हाथों से दूर करते हैं, न ही वे अपने अधिगम को दूसरों पर स्थानान्तरित कर सकते हैं । धर्मता सत्य की देशना से वे सत्वों को मुक्त करते हैं।”
उन्होंने कहा कि बुद्ध के अनुयायियों को इस संकेत को गले लगाना होगा कि हम स्वयं अपने तारक हैं: हमें स्वयं ही इस यात्रा को तय करना है। बौद्ध अभ्यासी का उद्देश्य संसार से मुक्ति और बुद्धत्व का उद्देश्य है। उसे पूरा करने के लिए हमें उसके कारणों का संचय करना होगा और यह वास्तविकता का स्वाभाविक अंग है, कि प्रभाव उन्हीं कारणों से उत्पन्न होते हैं जिनसे उनका तालमेल बैठता है ।
बुद्ध का एक रूपकाय होता है और एक धर्मकाय। यह रूपकाय है जो उसके प्राथमिक उद्देश्य – अन्य सत्वों के कल्याण को प्रभावित करता है। वे ऐसा केवल वाणी द्वारा सत्य को उद्घाटित कर सकते हैं। परन्तु उनका रूपकाय मात्र माँस और रक्त का नहीं है, अपितु उनकी प्रज्ञा के साथ का है। वह उनके सहज कार्यों की अभिव्यक्ति है। परिणामतः हमें उपाय से, व्यापक अंग और प्रज्ञा के गहन अंग का विकास करना होगा।
सूत्र यान में बुद्ध के धर्मकाय का संपूर्ण मार्ग दिखाई देता है, पर उनके रूपकाय का मार्ग और अधिक जटिल है। इसे संपूर्ण करने के लिए जिसकी आवश्यकता है, वह है इष्टदेव योग, जिसमें शून्यता की समझ, बुद्ध काय का रूप ले लेती है। इसे एक मार्ग की आवश्यकता पड़ती है, जिसमें शून्यता की समझ इष्टदेव के शरीर का रूप ले लेती है। यही इष्टदेव योग का उद्देश्य है।
इस परिचयात्मक व्याख्या के बाद, परम पावन ने बोधिचित्तोत्पाद का एक संक्षिप्त अनुष्ठान किया। उन्होंने वन्दना, बुद्धों और बोधिसत्वों की पूजा, विशेषकर प्रतिपत्ति पूजा, पाप देशना, बुद्धों और बोधिसत्वों के पुण्यानुमोदन, धर्म चक्र प्रवर्तन का अनुनय, अनिर्वाण के लिए याचना, जैसे सप्तांग प्राथमिक अभ्यासों के विषय की व्याख्या की। परम पावन की सलाह को मानते हुए शिष्यों ने आवश्यक पदों का पाठ अंग्रेज़ी में किया।
जैसे ही उन्होंने ‘मुनित्रिसमयव्यूह ’का अभिषेक प्रारंभ किया, परम पावन ने उल्लेख किया कि उन्हें यह अभिषेक चोज्ञे ठिछेन रिनपोछे से मिला था, जो सक्या परम्परा के छरपा शाखा के प्रमुख थे।
दोपहर के भोजन के बाद सार्वजनिक व्याख्यान देने जब वे मंच पर लौटे तो रिचर्ड गेर ने उनका संक्षिप्त परिचय दियाः
“यहाँ अपने बीच एक ऐसे व्यक्ति का स्वागत करते हुए मैं गौरव का अनुभव करता हूँ, जो स्वयं से अधिक हम सब की चिन्ता करता है; परम पावन दलाई लामा,” जिसका उत्तर तालियों की एक लम्बे समय की गड़गड़ाहट थी। परम पावन ने अपने जाने पहचाने ढंग से प्रारंभ कियाः
“भाइयों तथा बहनों, मैं बहुत प्रसन्न हूँ और मेरे लिए आपके साथ अपने कुछ विचार तथा अनुभव बाँटना गौरव की बात है। मैं आयोजकों को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि उन्होंने इसे संभव बनाया। पिछले कुछ दिनों से मैं बौद्ध धर्म के विषय में बात कर पा रहा हूँ और आज मैं यहाँ हूँ, वही व्यक्ति जो इस ग्रह में रह रहे सात अरब लोगों में से एक है। यदि मैं अपने आपको कुछ अलग मानूँ तो वह मुझे उन लोगों से दूर करता हूँ जिनसे मैं बात कर रहा हूँ।”
“शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक स्तर पर हम सब एक समान हैं। आपको अपनी भावनात्मक समस्याओं का सामना करना पड़ता है; और मुझे भी।”
“सबसे पहले तो मैं हिंसा तथा अहिंसा के सीमांकन के विषय में बात करना चाहता हूँ। जिसके कारण अंतर पड़ता है, वह प्रेरणा है। यदि आप दूसरों की चिंता करते हैं और परिस्थिति ऐसी होती है कि एक सकारात्मक कारण के लिए आपको कठोर शब्दों का प्रयोग करना पड़े, तो यह हिंसा नहीं है। पर यदि आप मीठे शब्दों, चिकने भाव और उपहार देकर नुकसान, धोखा अथवा शोषण करना चाहें, तो वह एक प्रकार की हिंसा है। दूसरा मैं बल देना चाहूँगा कि अहिंसा निष्क्रियता का बहाना नहीं है।”
“मनुष्य के रूप में हमारा भौतिक रूप अहिंसा से अधिक मेल खाता है। मनुष्य के हाथ की तरफ देखिए; यह हिंसा के अनुकूल नहीं है। हमारे नाखून गोल और तराशे हुए हैं, बिल्ली के चीर फाड़ करने वाले पंजों जैसे नहीं हैं। इसी तरह हमारे दाँत भी एक शाकाहारी हिरण की तरह चिकने हैं। इसके अतिरिक्त हम सामाजिक प्राणी हैं।”
उन्होंने टिप्पणी की कि हिंसा का संबंध प्रायः आत्म केन्द्रित भावना और ‘हम’ और ‘उन’ की भावना से आता है। उन्होंने कहा कि हमें मानवता की एकरूपता का विकास करते हुए सभी मानवता को ‘अपने’ एक भाग के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने टिप्पणी की, कि बीसवीं शताब्दी अन्वेषणों का एक अनूठा युग था पर फिर भी एक अनुमान के अनुसार २०० अरब लोग हिंसा के कारण मारे गए, जिसमें आणविक शस्त्र के प्रयोग भी शामिल थे। हमें जीवित रहने का कोई और ढंग ढूँढना होगा। इससे जो असंबद्धित नहीं है, वह यह कि अमीरों तथा गरीबों के बीच की बढ़ती खाई को कम करना होगा।
“इस शताब्दी में ८७ वर्ष और बचे हैं और यह अपेक्षाकृत नई है। भविष्य खुला है और इसे फिर से आकार दिया जा सकता है, पर जहाँ मेरी पीढी अलविदा कहने को तैयार है, जो आज युवा हैं उनके कंधों पर उत्तरदायित्व है। यह कैसे किया जा सकता है? शिक्षा में सुधार कर। हमें एक उपाय की, नैतिक मूल्य की आवश्यकता है जो पूरी मानवता के अनुकूल हो, मात्र इस अथवा उस धर्म के सदस्यों के लिए नहीं।”
“एक बार हम यह समझ लें कि नैतिक मूल्य हमारे हित में हैं तो हम अपने व्यवहार को और अधिक पारदर्शी बना पाएँगे जो खुलेपन, विश्वास और मैत्री की ओर ले जाएगा। स्पष्ट रूप से सौहार्दता सुखी जीवन का सच्चा स्रोत है। धर्मनिरपेक्ष नैतिकता धर्मनिरपेक्ष विद्यालयों में दी जा सकती है। यही मेरा व्याख्यान है; अब कुछ प्रश्न हो जाएँ।”
सबसे पहले प्रश्न कर्ता ने बर्मा में बौद्धों द्वारा मुसलमानों पर हो रही हिंसा पर परम पावन के विचार पूछे। उन्होंने उत्तर दिया कि जैसे ही उन्होंने इन घटनाओं के बारे में सुना, उन्होंने दिल्ली में अपने प्रतिनिधि से बर्मा के दूतावास से संपर्क करने को कहा, जहाँ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। फिर उन्होंने आंग सान सूची को पत्र लिखा। उन्होंने कहा कि उन्होंने उन बौद्ध भिक्षुओं से जो इसमें शामिल हैं, अनुरोध किया है कि जब उन्हें क्रोध आए तो वे बुद्ध के मुख का स्मरण करें, और यह कहा कि यदि बुद्ध निजी रूप में उपस्थित होते तो वे इन मुसलमानों को अपने संरक्षण में ले लेते।
परम पावन ने यह भी स्पष्ट किया कि ११ सितम्बर के बाद उसकी पहली स्मृति समारोह के अवसर पर मुसलमान पृष्ठभूमि के केवल कुछ लोगों द्वारा किए गए हिंसक उपद्रव के कारण पूरे समुदाय के लोगों, एक धर्म के सभी सदस्यों की निंदा करने के विरोध में उन्होंने प्रबल रूप से बोला था। तब से वे स्वयं को प्रायः इस्लाम के पक्ष में बोलता पाते हैं।
चीनी कलाकार अइ वै वै ने पूछा कि क्या परम पावन अपनी जन्मभूमि लौटने की आशा रखते हैं। उनका उत्तर था कि २००५ में उन्होंने चीनी सरकार को एक संदेश भेजा था कि वे वुताई शान के बौद्ध स्थल की यात्रा करना चाहते हैं; उनकी प्रार्थना अस्वीकृत कर दी गई। उन्होंने टिप्पणी की, कि गत ६० वर्षों में चार विशिष्ट युग देखे जा सकते हैः माओ की विचारधारा का युग; देंग ज़ियाओपिंग की सम्पत्ति निर्माण का युग; जियांग ज़ेमिन का बेहतर लोगों का दल में शामिल करना तथा हू जिंताओ के एक सद्भाव पूर्ण समाज को, जो पूर्ण रूप से सफल नहीं हुआ, को प्राप्त करने का युग। सद्भाव आवश्यक है, पर वह विश्वास और सम्मान से प्राप्त किया जाता है, शक्ति प्रयोग से नहीं। अब शीजिनपिंग और लि केक्युइआंग से जुड़ा एक नया युग प्रारंभ हुआ है, जिसमें ऐसी आशा की जाती है कि वे साधारण ज्ञान का प्रयोग करेंगे और देंग की तथ्यों से सत्य को ढूँढने की चेतावनी का पालन करेंगे। यह ऐसा भी समय है, जब हर सप्ताह १०-२० चीनी परम पावन को देखने धर्मशाला आते हैं।
एक और प्रश्नकर्ता ने कहा कि कई तिब्बती परम पावन से आशीर्वाद लेने आते हैं, पर उनमें से कई उनकी एक समान उद्देश्य को ढूँढने के सलाह का पालन नहीं करते। परम पावन ने स्पष्ट उत्तर दियाः
“तिब्बत के ६ अरब तिब्बतियों में से ९०% यह अनुभव करते हैं कि हमारा उद्देश्य वास्तविक है और काम कर सकता है। स्वतंत्र देशों में रह रहे लगभग १,००,००० लोगों में से ९०% हमारा समर्थन करते हैं। एक छोटा वर्ग अलग ढंग से सोचता है। उनमें से एक या दो पूर्ण रूप से स्वतंत्रता चाहते हैं।”
जब १९५० में समस्याएँ प्रारंभ हुई तो हमने सहायता के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को आवेदन दिया; कुछ न हुआ। १९५२ में हमने चीनी सरकार की ओर हाथ बढ़ाने का प्रयास किया और १९५४ में मैंने चीन की यात्रा की और अध्यक्ष माओ और अन्य नेताओं से कई बार भेंट की। जब मैं जा रहा था तो आशंकित था, पर जब लौटा तो आशावादी था। १९५६ में हिंसा भड़क उठी और मुझे भारत की यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ, जहाँ मैं पंडित नेहरू और अन्य नेताओं से मिला, जिनमें से सभी ने मुझसे लौट कर चीनियों के साथ वस्तुस्थिति ठीक करने की सलाह दी। मैंने प्रयास किया पर १९५९ में परिस्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो गई। हमने १९५९, १९६० और १९६५ में तिब्बत के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया पर उन सब का कोई परिणाम न हुआ। नेहरू ने स्पष्ट रूप से मुझसे कहा था कि तिब्बत के प्रश्न पर संयुक्त राज्य अमरीका चीन से युद्ध नहीं करेगा।
“१९७४ में हमने निश्चय किया कि जब समय आएगा – चीन अभी भी सांस्कृतिक क्रांति की पीड़ा में था – हमें चीनी अधिकारियों से बातचीत करनी होगी और तब हमने मध्यम मार्ग के दृष्टिकोण का निश्चय किया।”
“१९७८ में देंग ने कुछ सकारात्मक कदम उठाए और हमारी ओर से मेरे भाई उनसे मिलने गए। परिणामस्वरूप सीमा नियंत्रण में ढील दी गई और दोनों ओर के परिवार एक दूसरे से मिलने जा सके। तथ्य अन्वेषी प्रतिनिधिमंडल तिब्बत गए। ८० के दशक में हु याओबंग के तहत हममें आशा थी, पर उन्हें पदच्युत कर दिया गया और चीन में प्रजातंत्र आंदोलन प्रारंभ हुआ, जिसका समापन थियानन्मेन घटना के साथ हुआ। जियांग ज़ेमिन के तहत फिर से २००२ में संवाद प्रारंभ हुआ।”
“हमारा पक्ष स्वतंत्रता की माँग करना नहीं अपितु सच्ची स्वायत्तता है। हम तिब्बत को आधुनिक बनाना चाहते हैं। पर हमें अपने नाज़ुक स्वाभाविक पर्यावरण, जिसका पानी एशिया के अरबों लोगों के काम आता है, को सुरक्षित करना होगा और हमें अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को संरक्षित करने में सक्षम होना होगा। मध्य तिब्बत के महाविहार के शिक्षा केन्द्र, जहाँ तिब्बत के सभी भागों के विद्यार्थी के अध्ययन के लिए आने के कारण खम, आमदो और उचंग के बीच एकता बनी हुई थी । इसी एकता को हम वापस लाना चाहते हैं।”
“मध्यम मार्ग सभी संबंधित पक्षों के हित में है। एक छोटा वर्ग पूरी स्वतत्रता चाहता है, पर इसे प्राप्त करने का कोई उपाय उनके पास नहीं है। उनके पास कोई रणनीति नहीं है। हमें य़थार्थवादी होना चाहिए।”
एक प्रश्न पर, कि युवाओं में बेहतर नैतिक मूल्यों के विकास में उनकी किस प्रकार सहायता करनी चाहिए, परम पावन ने उत्तर दिया कि आप को स्वयं उन्हें कार्यान्वित करना होगा। और चूँकि बच्चों को स्नेह देने का परिणाम यह होता है कि वे सुरक्षित, आत्मविश्वास से भरे वयस्क के रूप बड़े होते हैं, अतः स्नेह एक महत्वपूर्ण तत्व है।
परम पावन ने समाप्त करते हुए कहाः
“अटलांटा में ३ दिन, मैक्सिको में ६ दिन और न्यूयॉर्क में ३ दिनों के बाद आज यहाँ अंतिम दिन है। कभी कभी मुझे लगता है कि मैं केवल लोगों को हँसाने आया हूँ, पर मुझे लगता है कि मैंने कुछ एक छोटा योगदान दिया है। परन्तु चूँकि मैं कल जा रहा हूँ, आपकी समस्याएँ आपको ही बुद्धिमानी और प्रभावशाली ढंग से सुलझानी होगी।
अगली भेंट तक, धन्यवाद और अलविदा।”