वॉरसा, पोलैंड, अक्तूबर २४, २०१३ - आकाश बादलों से ढँका था और हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी जब परम पावन दलाई लामा आज प्रातः एक छोटे से ड्राइव पर वॉरसा विश्वविद्यालय जाने के लिए अपने होटल से बाहर निकले, जहाँ रेक्टर उनके स्वागत के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी पहली बैठक पोलिश सांसदों के एक समूह के साथ थी। परम पावन ने अपने पुराने मित्र हेनरिक वुजेक को देखा और बड़े स्नेह से गले लगाया। बीटा बबलविज़ द्वारा समूह के सदस्यों का परिचय कराया गया। परिचय के पश्चात, सांसद परम पावन को घेर कर खड़े हो गए, उन्हें सुनने, कि वे क्या कह रहे हैं, कुछ एक घेरा बना ज़मीन पर उनके पैरों के पास ज़मीन पर बैठ गए।
परम पावन ने हँसी ठिठोली करते हुए प्रारंभ किया कि पोल भी साम्यवादी आधिपत्य की कमियों से उतने ही परिचित हैं जितने तिब्बती। उन्होंने कहा कि साघारणतया वे तिब्बत की स्थिति का इस प्रकार वर्णन करते हैं जिसमें एक बिन बुलाया मेहमान बंदूक से लैस होकर आया और सब पर नियंत्रण करने के लिए तत्पर हो गया। परन्तु सत्य की शक्ति और बंदूक की शक्ति की होड़ में, दीर्घ काल में सत्य की शक्ति की विजय होगी। उन्होंने टिप्पणी की, कि तिब्बतियों में भावना अब पहले से कहीं अधिक प्रबल है।
“यद्यपि तिब्बत ७वीं, ८वीं, और ९वीं शताब्दियों में सम्पूर्ण मध्य एशिया में स्वतंत्र और प्रभावशाली था पर अतीत अतीत है और अब हम स्वतंत्रता की माँग नहीं कर रहे। चीन का संविधान क्षेत्रीय, क्षेत्राधिकार से संबंधित और काउंटी स्वायत्तता प्रदान करता है और तिब्बतियों को उन अधिकारों का प्रयोग करने में सक्षम होना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में तिब्बती अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म का संरक्षण करने और बनाए रखने और नाज़ुक पर्यावरण को सुरक्षित कर पाएँगे।”
उन्होंने कहा कि चीन विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है, पर उसे खुलने की आवश्यकता है। यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ पोलिश सांसद कुछ प्रभाव डाल सकते हैं, एक बंद समाज के हानिकारक प्रभावों और उसके खुले होने के लाभ पर, और कानून के नियमों में रहते हुए। चूँकि १.३ अरब चीनियों को यह जानने का अधिकार है कि क्या हो रहा है और वे सही तथा गलत के बीच निर्णय करने में काफी सक्षम हैं, इसलिए कड़े सेंसरशिप का होना नैतिक रूप से गलत है तथा स्वयं को पराजित करने जैसा है। यह अपने ही लोगों को मूर्ख बनाने के समान है। राष्ट्र की भलाई के लिए प्रेस की स्वतंत्रता और अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर एक न्यायपालिका बहुत महत्वपूर्ण है। संभवतः एक नए प्रजातंत्रीय देश के रूप में पोलैंड यह बताने के लिए अपने अनुभवों को आधार बना सकता है।
“तिब्बती लोगों के साथ सम्मान के साथ पेश आना,” परम पावन ने कहा, “उनकी पहचान, भाषा तथा संस्कृति का सम्मान करना, एक बहुत अच्छे सामंजस्यपूर्ण समाज के निर्माण का उचित ढंग है।”
पोप जॉन पॉल द्वितीय पर एक वृत्तचित्र के लिए शोध कर रही एक महिला के साथ एक संक्षिप्त साक्षात्कार में परम पावन ने उसे बताया, कि वे पहली बार पोप से वेटिकन में उनके पोप बनने के कुछ समय बाद उनसे मिले थे। उन्होंने कहा कि जब भी कोई नए पोप बनते हैं, तो वे उनसे मिलना अपना कर्तव्य समझते हैं। पर उन्होंने कहा कि सबसे अधिक भावुक क्षण जब वे उनसे मिले वह १९८६ में असीसी में दुनियावी सभा थी, जिसमें विश्व व्यापी आध्यात्मिकता पर ध्यान केन्द्रित किया गया था।
“हमारी पहली भेंट से ही,” परम पावन ने स्मरण किया कि, “मैंने एक निकटता अनुभव की। एक साम्यवादी व्यवस्था से जूझने के हमारे अनुभव समान थे। वे आध्यात्मिकता के मूल्य को लेकर बहुत चिन्तित थे। उन्होंने भौतिक विश्व की समस्याओं को अधिकांश रूप से भावनात्मक स्तर पर देखा, और यह आध्यात्मिकता है जिससे हम आंतरिक शक्ति लेते हैं।”
लेक वालेसा के बारे में परम पावन ने स्मरण किया कि उन्होंने पहली बार उनके और एकजुटता पर बी बी सी वर्ल्ड सर्विस पर सुना, जब वे लदाख के सुदूर उत्तरी भारतीय क्षेत्र में थे। बाद में उन्होंने उनकी और उनकी प्रसिद्ध मूँछों की एक तस्वीर देखी और बाद में उनसे वॉरसा में भी आकर मिले।
“मैं जिस बात का प्रशंसक हूँ,” परम पावन ने कहा “कि वे किस तरह अहिंसा के सिद्धांतों पर सख्ती से अड़े रहे। वे अहिंसक स्वतंत्रता सेनानियों की सफलता का एक उदाहरण हैं।”
पोप जॉन पॉल द्वितीय की ओर लौटते हुए उन्होंने कहा कि यद्यपि वे शारीरिक रूप से हमारे साथ नहीं हैं, पर उनकी भावना बनी हुई है और जो उनके प्रशंसक हैं, उनका उस भावना को जीवित बनाए रखने का उत्तरदायित्व बनता है।
और अंत में लगभग दो दर्जन तिब्बती जो पोलैंड में रहते हैं और विभिन्न तिब्बती समर्थक समूहों के सदस्य परम पावन से मिलने के लिए एकत्रित हुए थे। उन्होंने उन्हें बताया कि करीब ५५ वर्ष निर्वासन में आने के बाद तिब्बत में अभी भी बहुत पीड़ा है पर उसके बाद भी तिब्बती भावना झुकी नहीं है। यदि तिब्बत के तिब्बती सुखी होते तो और कुछ कहने की आवश्यकता न होगी पर तिब्बत में जो स्थिति बनी हुई है, वह ऐसी है कि उनमें से कई उसके साथ बने रहने के बजाय अपने प्राण त्यागना पसंद करते हैं। तिब्बती जो स्वतंत्र देशों में रहते हैं, उन्हें तिब्बत में रह रहे अपने भाई बहनों का प्रतिनिधि बनना होगा; उन्हें भी तिब्बती भावना बनाए रखनी होगी।
“यदि हम इतिहास की ओर मुड़ कर देखें, हम देखते हैं कि हमारी गर्व करने योग्य एक आध्यात्मिक परम्परा है। हमारी बौद्ध परम्परा ७वीं शताब्दी में शांतरक्षित और कमलशील, जो दोनों ही दर्शन तथा तर्क के महान गुरु थे, के तिब्बत आने से प्रारंभ हुई। पद्मसंभव की अपनी भूमिका थी, पर यह शांतरक्षित थे जिन्होंने धर्म की स्थापना की। ऐसा कहा जाता है कि अपनी आयु के बावजूद उन्होंने तिब्बती सीखना प्रारंभ किया। उन्होंने सिखाया कि अध्ययन कैसे किया जाए, ग्रंथों का अनुवाद और तर्क कैसे किया जाए। परिणामतः आज हमारे पास अध्ययन तथा उस पर निर्भर होने के लिए कांग्यूर और तेंग्यूर के ३०० से अधिक ग्रंथ हैं।”
“कुछ लोग तिब्बती बौद्ध धर्म को लामावाद के नाम से जानते हैं, पर हम महान भारतीय विश्वविद्यालय नालंदा, जो केवल अनुष्ठान का ही नहीं पर शिक्षा का विख्यात केन्द्र था, से आ रही विशुद्ध परम्परा का पालन करते हैं। जिस परम्परा का हम पालन करते हैं उसमें चित्त और भावनाओं के कार्यों की गहरी समझ है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा इसकी और भी सराहना की जा रही है। इसी तरह तिब्बती चिकित्सा परम्परा के प्रति बहुत आकर्षण है, जिसमें कुछ ऐसी परिस्थितियों के उपचार हैं जो आधुनिक चिकित्सा के पास नहीं।”
उन्होंने उन्हें बताया कि यद्यपि यह एक पारम्परिक सोच थी कि बौद्ध धर्म का अध्ययन तथा अभ्यास भिक्षु तथा भिक्षुणियों का क्षेत्र था, पर वे तिब्बतियों, मंगोलियाइयों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वे स्वयं को इक्कीसवीं शताब्दी का बौद्ध मानें। इसका अर्थ यह सीखना है कि किस प्रकार चित्त को परिवर्तित किया जाए, यह सीखा जाए कि बुद्ध धर्म तथा संघ क्या हैं।
“हमें जिस की आवश्यकता है, वह समझ पर आधारित श्रद्धा है।”
और देर न करते हुए, परम पावन अपनी सफल यात्रा की समाप्ति के बाद, जिस दौरान उन्होंने अटलांटा, जॉर्जिया में तीन दिन, मैक्सिको में छह दिन, न्यूयॉर्क में चार दिन और पोलैंड में अंतिम दिन बिताया था, हवाई जहाज से भारत लौटने हेतु वॉरसा हवाई अड्डे जाने के लिए विश्वविद्यालय से रवाना हुए।