नई दिल्ली, भारत - 22 मार्च, 2013
आज प्रातः परम पावन ने कक्षा 10-12 के भारतीय छात्रों को सम्बोधित किया, जो दिल्ली तथा उसके आसपास के विभिन्न स्कूलों में पढ़ते हैं। वे बड़े उत्साह से उनसे मिले।
“छोटे भाइयों और बहनों, मैं आप सब से मिलकर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं 78 वर्ष का हूँ और मेरे जीवन में कई उतार चढ़ाव आए हैं, पर जो मैं आपसे कहना चाहता हूँ, वह यह है कि हमारी कई समस्याएँ, जिनका हम सामना करते हैं वे मानव निर्मित हैं। हमने उन्हें खड़ा किया और हमारे पास उन्हें दूर करने का अवसर भी है।”
उन्होंने अपने को बीसवीं शताब्दी का बताते हुए इसे जहाँ बड़ी उपलब्धियों का समय बताया, वहीं हिंसा का भी युग बताया।
उन्होंने कहाः “आप युवा लोग जो कि इक्कीसवीं शताब्दी के हैं, के पास एक अधिक शांति पूर्ण विश्व बनाने का अवसर है। संघर्ष की संभावनाएँ तो बनी हुई हैं, पर हमारे विभिन्न विचारों और रुचियों के बाद भी बल प्रयोग के स्थान पर संवाद के माध्यम से शांति बनाई रखी जा सकती है।”
उन्होंने अपने श्रोताओं को स्मरण दिलाया कि आज जीवित सात अरब मनुष्य एक सुखी जीवन जीना चाहते हैं और उन्हें ऐसा करने के प्रयास का पूर्ण अधिकार है। हमें संघर्ष के समय भी उनके अधिकारों के सम्मान को स्मरण रखने की आवश्यकता है।
“दूसरों के अधिकारो तथा जीवन का सम्मान करना भारत की अहिंसा परम्परा का आधार है। जैसे जैसे जनसंख्या बढ़ती है, मौसम परिवर्तन बढ़ता है और प्राकृतिक संसाधनों का क्षय होता है, वैसे वैसे स्वार्थों में संघर्ष की अधिक संभावना होती है,परन्तु हमें ऐसी चुनौतियों का सामना करने के लिए अहिंसात्मक उपाय ढूँढने होंगे।”
परम पावन की यह बात छात्रों ने अत्यंत ध्यान से सुनी कि उन्हें नई पीढ़ी के सदस्यों से मिलकर बहुत प्रसन्नता है, जो कि सही अर्थों में इक्कीसवीं शती के हैं और भारतीय हैं। उन्होंने याद दिलाया कि किस तरह तिब्बत भारत का ऋणी है, इतने विशाल तिब्बती ज्ञान का स्रोत। तिब्बती स्वयं को भारतीय गुरुओं का चेला मानते हैं, पर उन्होंने स्वयं को विश्वसनीय चेला सिद्ध किया है क्योंकि बौद्ध धर्म को अपनी ही जन्मभूमि में जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तिब्बतियों ने उस ज्ञान को ज्यों का त्यों बनाए रखा। निजी तौर पर उनके मानना है कि,
“मैं प्रायः स्वयं को भारत का पुत्र कहता हूँ क्योंकि मेरा मस्तिष्क भारतीय विचारों से भरा है और विगत 50 वर्षों से भी अधिक मेरे शरीर का पोषण भारत के चावल, दाल और रोटी से हुआ है।”
परम पावन ने समझाया कि जहाँ उनकी पहली प्रतिबद्धता मानव सुख के बढ़ते हित के लिए, सह्रदयता का विकास है, एक बौद्ध भिक्षु होने के नाते उनकी दूसरी प्रतिबद्धता अंर्तधर्मीय – समन्वय है। आस्तिक धर्म एक सृजनकर्ता में विश्वास करते हैं जबकि नास्तिक परम्पराएँ जैसे जैन धर्म, सांख्य की एक शाखा और बौद्ध धर्म यह मानते हैं कि हम ही सृजनकर्ता हैं। उनमें केवल बौद्ध धर्म अनात्मवाद की शिक्षा देता है। परन्तु सभी धर्म प्रेम, करुणा और क्षमा की शिक्षा देते हैं और सभी सुखी तथा करुणाशील मानवों का निर्माण करने के लिए समर्पित हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि तिब्बती संघर्ष को लेकर उनकी एक तीसरी प्रतिबद्धता भी थी, पर अब वे सेवा निवृत्त हो चुके हैं और अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व एक निर्वाचित नेतृत्व को सौंप चुके हैं। पर फिर भी उन्होंने यह स्वीकार किया कि वे तिब्बती हैं और तिब्बत के अंदर तथा तिब्बत के बाहर 6 अरब तिब्बती उन पर निरंतर आशा रखे हुए हैं, इसलिए उन पर वह उत्तरदायित्व अब भी है। उन्होंने छात्रो से कहा:
“मानवता के हित के विषय में सोचना आपका भी उत्तरदायित्व है और आपमें से जो आस्तिक हैं, आपका उत्तरदायित्व अन्य धर्मों के लोगों के साथ समझ बढ़ाना है।”
विकास और संतोष के बीच संतुलन के प्रश्न को लेकर परम पावन ने उत्तर दिया कि भौतिक सुविधाओं की सीमाएँ होती है इसलिए संतोष की भावना का होना लाभकारी हो सकता है। दूसरी ओर आंतरिक जीवन मूल्यों से परिचय का संबंध चित्त से है, जिसके विकास की क्षमता अनंत है। उन्होंने बताया कि 78 वर्ष की आयु में भी प्रतिदिन जब वे भोजन करते हैं तो वे पढ़ते हैं, इस तरह दिन प्रतिदिन उनका ज्ञान बढ़ता है। अतः जहाँ तक ज्ञान का संबंध है, वे न तो आत्मतुष्ट हैं और न ही संतुष्ट।
यह पूछे जाने पर कि किस तरह चीन हर बार बच जाता है, परम पावन ने सुझाया कि दिखने में और यथार्थ में अंतर है। इस संदर्भ में प्रश्न सरल प्रतीत होता है पर यथार्थ यह है कि वह अत्यंत जटिल है। युवा तिब्बती स्वतंत्रता की माँग कर सकते हैं, पर यहाँ भी दिखने और यथार्थ में अंतर है, क्योंकि आज चीन की साम्यवाद पार्टी और उनकी सेना कठोर और शक्तिशाली है। साथ ही चीन के बुद्धिजीवी, जो तिब्बत समस्या के समर्थक हैं, इस बात को मानते हैं कि एक परस्परीय लाभकारी समाधान होना चाहिए और भारत, अमरीका और यूरोपीय संघ की सरकारें मध्यम मार्ग दृष्टिकोण का समर्थन करती है।
निर्वाण को परिभाषित करने के लिए कहे जाने पर परम पावन ने कहा कि चित्त की प्रकृति जानना है पर वह अज्ञान से बाधित
छात्रो को सलाह देते हुए कि हमें सहृदयता के साथ साथ तीक्ष्ण बुद्धि भी आवश्यक है, उन्होंने यह भी कहा कि ईमानदारी और सच्चाई अधिक आत्मविश्वास और सकारात्मक ढंग से कार्य करने की ओर ले जाती है।
फाउंडेशन फ़ॉर युनिवर्सल रेसपॉन्सिबिलिटी द्वारा ही दोपहर को आयोजित एक अधिक उम्र और परिपक्व श्रोता जिनमें उनके कई पुराने मित्र भी थे को संबोधित करते हुए परम पावन ने कहा:
“ हमारे यहाँ मिलने का उद्देश्य यह सीखने के लिए है कि हम अपने समय का किस प्रकार उचित रूप से प्रयोग करें। हमारे जीवन को सार्थक बनाना महत्त्वपूर्ण है। किसी को डराने धमकाने और धोखा देने से थोड़े समय के लिए तो लाभ हो सकता है पर इससे एक प्रकार की बेचैनी बनी रहती है। धन सच्चा संतोष नहीं देता, जबकि करुणा से संतोष मिलता है।”
उन्होंने कहा कि सभी सत्त्व सुख और पीड़ा का अनुभव करते हैं और हम भी उनमें हैं। मनुष्य को जो बात अलग करती है वह यह कि हममें एक शक्तिशाली बुद्धि है और सुख प्राप्त करने और दुःख से बचने की कहीं अधिक क्षमता है। सच्चा सुख और मैत्री पैसे से नहीं आती और न ही ज्ञान से, अपितु सहृदयता से आती है। एक बार हम इसे पहचान लें तो हम इसके विकास के लिए और इच्छुक होंगे।
यहाँ भारत में धर्म निरपेक्षता और धर्म निरपेक्ष नैतिकता विकसित हुई है और यहीं से अहिंसा निकली है। ऐसे प्राचीन मूल्य आज के विश्व में बहुत प्रासंगिक हैं।
अपने पढ़ाए जाने वाले ग्रंथ दीपांकर अतिश के “बोधिपथप्रदीप” को खोलते हुए परम पावन ने समझाया कि उन्हें इस ग्रंथ का मौखिक ज्ञान एक किन्नौरी लामा, रिगज़िन तेनपा से प्राप्त हुआ। “बोधिपथप्रदीप” निर्वाण के मार्ग की समझ को सरलता से समझाने की दृष्टि से मूल्यवान है।
चाय के पश्चात परम पावन ने ऐसे प्रश्नों के उत्तर दिए कि क्या एक सरकारी कर्मचारी निर्वाण प्राप्त कर सकता है? उन्होंने उत्तर दिया कि सब कुछ हमारी प्रेरणा पर निर्भर करता है। यह पूछे जाने पर कि ऐसा क्यों है कि आध्यात्मिक मार्ग पर क्यों कुछ लोग अधिक विकास करते हैं और कुछ लोग कम, उन्होंने कहा कि एक बौद्ध दृष्टिकोण से बहुत कुछ हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों पर निर्भर करता है। उन्होंने बताया कि स्वयं बुद्ध की आध्यात्मिक यात्रा तीन अनंत कल्पों की थी। इस कथन ने परम पावन को शांतिदेव विरचित उनकी सबसे प्रिय प्रार्थना का पाठ करने के लिए प्रेरित कियाः
जब तक आकाश स्थित है और जब तक संसार रहे ।
तब तक जगत् के दुःखों का नाश करते हुए मेरी भी स्थिति बनी रहे ।।
उन्होंने बताया कि यह प्रार्थना उन्हें जीवन का उद्देश्य देती है, और उनके लिए संतोष, दृढ़ विश्वास और आंतरिक शक्ति का स्रोत है।