दिसंबर ५, २०१३ - नई दिल्ली, भारत, ५ दिसम्बर, २०१३ - परम पावन दलाई लामा इन दिनों टी सी वी छात्रावास दिल्ली में निवास कर रहे हैें और उन्होंंने निवास कर रहे छात्रों के साथ सामूहिक फोटो के लिए हामी भर दी थी। इस अवसर पर उन्होंने शिक्षा के मूल्य के विषय में उनसे बात भी की।
"निर्वासन में आने पर हमने पहला निश्चय स्कूलों की स्थापना का किया, आधुनिक शिक्षा का अभाव हमारी समस्याओं के कारणों में से एक था। हमने पंडित नेहरू और भारत सरकार से संयुक्त राष्ट्र से हमारी अपील का समर्थन करने का अनुरोध किया। यद्यपि पंडित नेहरू ने मुझसे कहा था कि इससे कोई लाभ न होगा। उन्होंने कहा कि तिब्बत के मुद्दे को जीवित रखने के लिए हमें जिसकी आवश्यकता है, वह युवा तिब्बतियों को शिक्षित करने की है। वह मुद्दे को खोने से बचायेगी। भारत सरकार ने तिब्बती शिक्षा के खर्च को पूरा करने का उत्तरदायित्व लिया। यदि हम केवल आधुनिक शिक्षा तक की पहुँच चाहते, तो हमें अलग तिब्बती स्कूलों की स्थापना की आवश्यकता न होती। पर हम तिब्बती स्कूल चाहते थे।"
"तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्रीमाली से, जो भोज में शामिल थे, नेहरू ने इस ओर ध्यान देने को कहा। उसी दिन भारत सरकार और नेहरू ने सरकार सी टी एस ए की स्थापना की घोषणा की।"
उन्होंने समझाया कि यहाँ का शिक्षा स्तर आज तिब्बत में उपलब्ध की तुलना में काफी बेहतर है। निर्वासन में लगभग कोई निरक्षरता नहीं है। अपने पैरों के पास बैठे छात्रों से उन्होंने कहा कि वे तिब्बत में बस रहे अपने स्वदेशवासियों को न भूलें, विशेषकर युवाओं को।
उन्होंने कहा कि तिब्बत में तिब्बतियों को अपने भावनाओं की अभिव्यक्ति का कोई विकल्प नहीं है, जो कि अधिक संख्या में हो रहे आत्मदाह के कारणों के योगदान कारकों में से एक है।
उन्होंने कहा,"जब मैं अन्य देशों की यात्रा करता हूँ जहाँ अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए स्वदेशी लोग जूझ रहे हैं, जैसे कि पेरु और न्यूजीलैंड, तो मैं देखता हूँ कि उनमें से कइयों के पास अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखने हेतु लिखने के लिए किसी प्रकार की सुविधा नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में मैं उन्हें सलाह देता हूँ कि वे कम से कम अपने बच्चों को परम्परागत नाम दें।"
"पेरू में, माया लोगों में अपनी संस्कृति और जीवन के ढंग को सुरक्षित रखने की प्रबल इच्छा होती है, पर मैंने उनसे कहा कि इस तरह स्वयं को विश्व के अन्य भागों से अलग कर लेना गलत है। मैंने उनसे कहा कि अपनी पहचान बनाए रखो, पर एकीकृत होकर रहो, अपने बच्चों को शिक्षित करो, ज्ञान और बुद्धि का उपयोग अपनी संस्कृति के संरक्षण के लिए करो।"
"दूसरी ओर नॉर्वे में, सामी लोगों ने नार्वेजियन सीखा है। उनकी आधुनिक शिक्षा है पर वे उस संदर्भ में अपनी पारम्परिक संस्कृति को बनाए रखने में सक्षम हुए हैं। वे एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिसकी नकल कर अन्य लाभान्वित हो सकते हैं।"
उन्होंने छात्रों को बताया कि तिब्बती भाषा और महत्त्वपूर्ण रूप से उसके लिखित रूप का विकास बौद्ध साहित्य के अनुवाद के लिए किया गया। परिणामस्वरूप आज बौद्ध चिंतन और विचार के लिए यह श्रेष्ठ भाषा है। तिब्बतियों ने बौद्ध धर्म का कड़ा अध्ययन एक हजार से अधिक वर्षों से किया है और परिणामस्वरूप उसके शिक्षण और चर्चा करने में विशेष रूप से सक्षम हैं। यह गर्व करने योग्य है। आधुनिक शिक्षा में लगे रहना आवश्यक है परन्तु तिब्बती अध्ययन को बनाए रखना भी आवश्यक है।
"वैज्ञानिक इस बात में अधिक रुचि ले रहे हैं कि बौद्ध धर्म क्या कहना चाहता है, यद्यपि सदा से ही ऐसा नहीं रहा है। मुझे कैलिफोर्निया में हुई एक बैठक में भाग लेने और एक महिला वैज्ञानिक से हुई भेंट का स्मरण है जो प्रारंभ में बहुत संशयपूर्ण थी। उसे देखकर ऐसा लगता था मानों वह सोच रही हो कि,'इस भिक्षु का विज्ञान से क्या लेना देना?' जैसे जैसे संवाद की परतें खुलती गई और हम यह समझाने में समर्थ हो पाए कि बौद्ध सृजनकर्ता में अथवा अपरिवर्तनशील आत्मा में विश्वास नहीं करते तो उसके व्यवहार में नमी आ गई। बाद में उसने अपने अध्ययन के क्षेत्र से निकले प्रश्न पूछे।
"इसी तरह ़डेपुंग महाविहार में माइंड एंड लाइफ सम्मेलन के दौरान एक वैज्ञानिक, जिसने घोषणा की कि वह बौद्ध नहीं है, ने फिर भी पूर्व और आगामी जन्मों के प्रति अपना दृढ़ विश्वास व्यक्त किया। प्राचीन भारतीय विचार धारा, विशेष कर बौद्ध धर्म में चित्त और भावनाओं पर प्रकाश डालने के लिए बहुत कुछ है। इसी प्रकार वैज्ञानिक बौद्ध धर्म के प्रतीत्यसमुत्पाद के प्रमुख स्वयंसिद्ध सिद्धांत को आकर्षक पाते हैं।"
"आधुनिक विज्ञान मानसिक चेतना से अधिक संवेदी चेतना पर ध्यान केन्द्रित करता है। चित्त और भावनाओं को लेकर इसकी समझ अभी भी बहुत कुछ प्राथमिक स्तर पर है। कुछ वर्गों में जैसी विचारधारा है उसके विपरीत बौद्ध धर्म लोगों को भयभीत करने के लिए नहीं, वह दुखों से राहत दिलाने के बारे में है।"
परम पावन ने इस बात की आलोचना की कि हम किस तरह धर्म को अध्ययन करने के रूप में न देखते हुए मात्र एक रिवाज़ के रूप में देखते हैं। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया कि किस प्रकार बुद्ध ने अपने अनुयायियों को उनकी शिक्षा का परीक्षण उसी प्रकार करने के लिए कहा था जैसे कि एक स्वर्णकार सोने का परीक्षण करता है। प्रयोग, जाँच और विश्लेषण उपयोग के उपकरण हैं।
उन्होंने कहा:
"जब मैं मैं वैज्ञानिक की प्रस्तुतियों को सुनता हूँ , तो मुझे उनमें विसंगतियाँ दिखाई देती है और मैं उन्हें चुनौती देता हूँ। तर्कशास्त्र के अध्ययन से वास्तव में मुझे सहायता मिली है। इसी तरह जो वैज्ञानिक, हमारे भिक्षुओं को शिक्षा दे रहे हैं, ने टिप्पणी की है कि, यद्यपि उनमें से कइयों में अंग्रेज़ी या गणित के प्रशिक्षण का अभाव है, पर उनका तार्किक दृष्टिकोण बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ है।"
"जब आप अध्ययन कर रहे हों, तो अ र प च न धी का जाप करें - मैं ऐसा करता हूँ - और मंजुश्री की सहायता माँगता हूँ। अच्छा आचरण बनाएँ रखें और ईमानदारी और विश्वसनीयता होने की हमारी अच्छी तिब्बती प्रतिष्ठा को बनाए रखें।"
उसके बाद तीन मंगोलियायियों द्वारा परम पावन का साक्षात्कार लिया गया। मंगोलियाई राष्ट्रीय टेलीविजन के लिए उरानचिमेग नानसल द्वारा पूछे जाने पर कि उन्होंने ज्ञलवा ज्ञाछो का अभिषेक न देकर वज्रभैरव का क्यों दिया। परम पावन ने उन्हें बताया कि वज्रभैरव के शांत और रौद्र रूप दोनों ही होते हैं। अतीत में, भारत और तिब्बत में कई आचार्य मंजुश्री के रूपों पर निर्भर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब वह पहली बार १९७९ में मंगोलिया आए थे, तो उन्होंने गदेन महाविहार में कई वयोवृद्ध भिक्षुओं को इस की दीक्षा दी थी। उन्होंने मंगोलिया में बौद्ध परंपरा के पुनरुद्धार का समर्थन करने के लिए दिया था। "अब आप स्वतंत्र हैं और अपने अभ्यास को पुनर्जीवित कर सकते हैं, अतः मैंने इसे फिर से देना उचित समझा।
बुद्ध वर्ल्ड के गुसेड त्सेरेनपिल ने परम पावन से पर्यावरण के विषय में पूछा। परम पावन पर्यावरण की देख रेख करने की आवश्यकता की सराहना करते हैं क्योंकि हमारा एकमात्र घर यह ग्रह है। उन्होंने कहा कि जलवायु में हो रहे परिवर्तन का सामना करने के लिए हमें नई रणनीति के लिए कार्य करना होगा और यह कहा कि ऐसा न हो कि जब ठंड हो तो आप फर्नीचर न जलाएँ। ऐसा करने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है।
परम पावन ने सोयोल के मंुखाबयार डाशज़ेरेग को तिब्बती बौद्ध धर्म में स्त्रियों की भूमिका समझाई। उन्होंने भिक्षुणी दीक्षा को लागू करने की परिस्थिति को समझाया और साथ में यह भी संकेत दिया कि योग्यता प्राप्त श्रमनेरियों को गेशेमा की डिग्री प्रदान की जाए। उन्होंने उनसे कहा कि वैज्ञानिक रूप से ऐसा देखा गया है कि स्त्रियाँ दूसरों की पीड़ा के प्रति अधिक संवेदनशील होती है और हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब महिला नेतृत्व के गुणों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।